पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३१

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कयौ भूप "हम करहिं कहा हैं दास पराए । फुकन देन नहिँ सकत मृतक बिन कर चुकवाए ॥ ऐसे ही अवसर मैं पालन धर्म काम है। महा बिपति मैं रहै धैर्य साई ललाम है ॥ ८४ ॥ बैंचि देह हूँ जिहि सत्यहि राख्यौ, मन ल्याऔ। इक टुक कपड़े पर, तेहि जनि आज छुड़ाऔ । फाड़ि कफन त अर्ध बसन कर बेगि चुकाऔ । देखो चाहत भयौ भोर जनि देर लगाऔ" ॥ ८५ ॥ सुनि महिषी बिलखाइ कफन फारन उर ठायो । पै ज्याँही उत “जो आज्ञा" कहि हाथ बढ़ायौ ॥ त्याँही एकाएक लगी कॉपन महि सारी । भयौ महा इक घोर सब्द अति विस्मयकारो ॥ ८६ ॥ बाजे परे अनेक एकही बेर सुनाई। बरसन लागे सुमन चहूँ दिसि जय-धुनि छाई ॥ फैलि गई चहुँ ओर विज्जु कैसी उजियारी । गहि लीन्यौ कर आनि अचानक हरि असुरारी ॥ ८७ ॥ लगे कहन दृग बारि ढारि "बस महाराज बस । सत्य-धर्म की परमावधि है गई आज बस ॥ पुनि-पुनि काँपति धरा पुन्य-भय लखहु तिहारे । अब रच्छहु तिहुँ लोक मानि मन वचन हमारे" ॥ ८८ ॥