पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३२

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करि दंडवत प्रनाम कयौ महिपाल जोरि कर । "हाय ! हमारे काज किया यह कष्ट कृपा कर" ॥ एतोही कहि सके बहुरि नृप-गर भरि आयो । तब सैब्या सौं नारायन यह टेरि सुनायौ ॥ ८९ ।। "पुत्री अब मत करौ सोच सब कष्ट सिरायो। धन्य भाग्य हरिचंद भूप लौं पति जो पायो" ॥ रोहितास्व की देह ओर पुनि देखि पुकार्यो । "उठौ भई बहु बेर ! कहा सोवन यह धार्यो ?" ॥ ९०॥ एता कहतहिँ भयौ तुरत उठि के सेो ठगढ़ौ । नैसैं कोऊ उठत बेगि तजि सोवन गाढ़ौ ॥ लग्यौ चकिन है चारहुँ ओर बिस्मय देखन । कबहुँ मातु अरु कबहुँ पिता का बदन निरेखन ॥ ९१ ॥ नारायन कौँ लखि प्रनाम पुनि सादर कीन्यौ । मात पिता के बहुरि धाइ चरननि सिर दीन्यौ । अजगुत आनँद औ करुना पुनि प्रेम समाए । दंपति सके न भाषि कछू हग आँसु बहाए ॥ ९२ ॥ सत्य, धर्म, भैरव, गौरी, सिव, कौसिक सुरपति । सब आए तिहि ठाम प्रसंसा करत जथामति ॥ दंपति पुत्र समेत सबहिं सादर सिर नायौ । तब मुनि बिस्वामित्र दृगनि भरि बारि सुनायौ ॥९३ ॥