पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३३

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"धन्य भूप हरिचंद लोक-उत्तर जस लीन्यौ । कान सकत करि महाराज जैसी ब्रत कीन्यौ । केवल चारहु जुग मैं तव जस अमर रहन हित । हम यह सब छल कियो छमहु सो अति उदार चित ॥९४॥ लीजै संसय त्यागि राज सब आहि तिहारी"। कयौ धर्म तब “हाँ हमकौं साखी निरधारी" ॥ बोलि उठ्यौ पुनि सत्य "हमैं दृढ़ करि धार्यो जो । पृथ्वी कहा त्रिलोक राज सब है ताही कौ" ॥ ९५॥ गद्गद स्वर सौं सम्हारि बहुरि बोले त्रिपुरारी । "पुत्र ! तोहि दै कहा लहैं हमहूँ सुख भारी ॥ निज करनी हरि कृपा आज तुम सब कछु पायौं । ब्रह्मलोकहूँ पै अबिचल अधिकार जमायौ ॥ ९६ ॥ तदपि देत हम यह असीस 'कुल-कीति तिहारी । जब लौँ सूरज चंद रहैं तिहुँ पुर उजियारी ॥ तव सुत रोहितास्व हूँ होहि धर्म-थिर-थापी । प्रबल चक्रवर्ती चिरजीवी महा प्रतापी ॥ ९७ ॥ तब अति उमगि असीस दीन्हि गौरी सैब्या काँ। "लक्ष्मी करहि निवास तिहार सदन सदा काँ ॥ पुत्रवधू सौभाग्यवती सुभ होहि तिहारी। तव कीरति अति बिमल सदा गा. सुर-नारी ॥९८ ॥