पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१३४

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यह असीस सुनि दंपति कौं दंपति सिर नायो तैसहि भैरवनाथ बाक मैं बाक मिलायौ । "औ गावहिं कै सुनहि जु कीरति बिमल तिहारी। सो भैरवी-जाचना सौँ नहिँ होहि दुखारी" ॥ ९९ ॥ देव-राज तब लाज सहित नीचे करि नैननि । कड्यौ भूप सौं हाथ जोरि अतिसय मृदु बैननि ॥ "महाराज यह सकल दुष्टता हुती हमारी। पै तुमकौं तो सोऊ भई महा उपकारी ॥१०॥ स्वर्ग कहै को ? तुम अति श्रेष्ठ ब्रह्म-पद पायौ । अब सब छमहु दोष जो कछु हमसौँ बनि आयौ ॥ लखहु तिहारे हेत स्वयं संकर बरदानी । उपाध्यायकै बने बटुक नारद मुनि ज्ञानी ॥ १०१॥ बन्यो धर्म आपहिँ तुम हित चंडाल अघोरी। बन्यो सत्य ताका अनुचर यह बात न थोरी ॥ बिके न तुम नहिँ भए दास यह उर निरधारौं । हरि-इच्छा सौं इहिँ विधि बायौ सुजस तिहारौ" ॥१०२॥ बहुरि कयौ बैकुंठ-नाथ नृप हाथ हाथ गहि । "जो कछु इच्छा होहि और सेा माँगहु बेगहि" ॥ कयौ जोरि कर भूप "आज प्रभु दरस तिहारे । सकल मनोरथ भए सिद्ध इक संग हमारे॥१०३ ॥