पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४३

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दलन बिपच्छिनि-पच्छ माहिँ अति दच्छ राम से । नैयायिक अति निपुन बेद-बेदांत धाम से ॥ षट सास्त्रनि का गढ़ ज्ञानधर सिवकुमार से । बैयाकरन बिदग्ध सुमति बारिधि अपार से ॥२१॥ ज्योतिषसुधा मयूष-अगार सुधाकर बर से । पानिनि ग्रथित सूत्र विभूषित दामोदर से ॥ फलादेस मरजाद मृदुल अवधेस सरीखे। गननागन मैं गुरु गनेस से अति मति तीखे ॥२२॥ आयुर्वेद प्रभेद परम भेदी गनेस से। रस-प्रयोग आचार्य चारुमति त्रिंबकेस से ॥ सुरुचि सौम्य साहित्य सलिलधर गंगाधर से । रोचक कवितारत्न रुचिर गृह रतनाकर से ॥२३॥ गौर गात अति गोल उदर त्रिबली जुत भावे । परम तेज को सदन बदन मन मोद बढ़ावै ॥ गोखुर-परिमित सिखा ग्रंथिजुत सिर छवि छाजे । सुंदर भाल बिसाल भव्य अति तिलक बिराजै ॥२४॥ सुम्र जज्ञउपवीत मॅज्यौ मेले कल काँधे । कोरदार दुपटा काँखा सोती करि बाँधे ।। नागपूर की नवल धवल धोती काटि धारे। बैठे गादी पैं उसीस के कछुक सहारे ॥२५॥