पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४४

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सिध्य पाँति का गूदग्रंथ बहु भाँति पढ़ावत । अन्वयार्थ सब्दार्थ भरे भावार्थ बतावत ॥ धर्म कर्म व्यवहार विषय जो पूछन आवै । तिनका करहिं प्रबोध भली विधि बोध बढ़ावै ॥२६॥ कहुँ पौरानिक लूत सरिस बक्ता ग्रंथनि के। यथारीति मर्मज्ञ कथा पावन पंथनि के॥ भारत भाव अमोल महाधन रमानाथ से। रामचरितमानस निबंध बंधन सुगाथ से ॥२७॥ लटपट लपट्यो सीस फबत फेटा जरतारी। केसर रोचन तिलक भाव भावत चिकारी ॥ गोरे गात सुहात चारु चौकस चौबंदी। लोचन ललित लखाति ललक लीला आनंदी ॥२८॥ सोहति बच्छस्थल बिसाल फूलनि की माला । बाम कंध साँ ढरि जानुन साँ दब्यौ दुसाला ॥ पोथी-बेठन खोलि चारु चौकी पर धारी। धूप दीप फल फूल द्रव्य की सजी पँत्यारी ॥२९॥ बालमीकि अरु ब्यास बदित बानी बर बाँचत । भव्य भाव बहु श्रोतनि के उर अंतर खाँचत ॥ इक-इक भावनि के बहु विधि पुष्ट करन कौँ । कथा प्रसंग अनेक कहत भ्रमजाल दरन कौँ ॥३०॥