पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४६

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लसत धाम अभिराम दिब्य गोमय सौं लीपे । कुंकुम चंदन चारु चून ऐपन सौं टीपे ॥ तिल तंदुल यव पात्र घने घृत भांड भराए । असन बसन साहित्य सकल जिन माहिँ धराए ॥३६॥ गोमय औ पलास समिधा कहुँ सूखत सोहैं। कहूँ दर्भ के मूठ श्रुवा लटकत मन मोहैं । बँधी बरोठे बीच बत्सजुत सुरभि सुहाई । सुंदर सुघर सुसील स्वच्छ सुभ सुख सरसाई ॥३७॥ जाके अंगनि बीच बसति देवनि की श्रेनी । सेवति जाहि उमाहि सुघर घरनी सुखदेनी ॥ रोचन रंजित पुच्छ रजत श्रृंगनि चढ़ि चमकै । परी पीठि पर लाल भूल झबिया-जुत झमकै ॥३८॥ बैठे होता दिब्य देह बर हवनकुंड पर । भाल बिसाल त्रिपुंड धरे घन सिखा मुंड पर ॥ पहिरे परम पुनीत पाटमय पाढर धोती। ओढ़ि उपरना अमल अच्छ अति काँखासोती ॥३९॥ माँजी औ उपवीत अच्छ कंठा कल धारे। बेद बिदित ब्यौहार मर्म के जाननिहारे ॥ करत यथाविधि तृप्त हब्यबाहन कौँ रुचि करि । साधत सब संसार हेत सुखसार सुमिरि हरि ॥४०॥