पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१४९

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पावन परम समाज जुरयौ तकि पातक हह । दुख दारिद दुर्भाग्य दुरित दुर्मति टरि टहरै ॥ सोभा सुभग ललाम लाहु लोचन का भावत । इत उत ते बहु लोग ललकि दरसन कौँ आवत ॥५६॥ पातल दोने दिव्य बिमल कल कदली दल के । परत पाँति के पाँति स्वच्छ धोए सुचि जल के ॥ भाँति भाँति के जात पुनीत पदारथ परसे । सुंदर साँधे स्वादु स्वच्छ सब रस ौं सरसे ॥५७॥ वासुमती को भात रमुनिया दाल सँवारी । कढ़ी पकारी परी कचौरी परी कचौरी मोयनवारी ॥ दधिभीने बर बरे बरी सह सह साग निमोने। पापर अति परपरे चने चरपरे सलोने ॥५८॥ नीबू आम अचार अम्ल मीठे रुचिकारी। चटनी चटपट अरस सरस लटपट तरकारी॥ मोदक मोतीचूर जालजुत मालपुवा तर। मेवामय श्रीखंड केसरिया खीर मनोहर ॥५९॥ हर हर हर हर महादेव धुनि धाम मढ़ावत । कृपा मंद मुसकानि आनि आनंद बढ़ावत ॥ पंच कवल करि अँचै आचमन रुचि उपजावत । अति आमोद प्रमोद भरे भिच्छा सब पावत ।।६०॥