पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

. (रत्नाकर जी तो मध्ययुग की मनोवृत्ति लेकर मध्ययुग के ही वातावरण में निवास करते थे। आधुनिकता के प्रति उनकी कोई विशेष रुचि न थी। मध्ययुग हिंदी का सुवर्णयुग था और रत्नाकर जी उसी में रमे हुए थे। उनकी भाषा और उनके वर्ण्य विषय सब तत्कालीन ही हुए। उनके आचार-व्यवहार तक में उसी समय की मुद्रा थी। उस युग की कल्पना को वास्तविक बनाकर रत्नाकर जी उसमें पूरे प्रसन्नभाव से रहते थे। अँगरेजी में ऐसे लेखकों और कवियों को 'क्लैसिक' कहने की चाल है जो स्वभावतः अपने भावों, पात्रों और भाषा आदि को प्राचीन यूनान तथा रोम की साहित्य-शैली में ढालते हैं और वहीं से अपनी साहित्यिक स्फूर्ति प्राप्त करते हैं। धीरे धोरे ऐसे क्लैसिक कवियों की वहाँ एक परंपरा बन गई है जिसकी विशेषताओं को श्रेणीबद्ध करते हुए समीक्षकों ने लिखा है कि वे कवि प्राचीन वातावरण को पसंद करते, पुरानी ग्रीक लैटिन अथवा अँगरेजी के काव्य-ग्रंथों का अध्ययन करते और उन्हीं की शैली को अपनाते हैं। पौराणिक और धार्मिक ग्रंथों के पात्रों का ही चित्रण करने की इनकी प्रवृत्ति होती है और ये भाषा को ही नहीं, उपमा, रूपक आदि साहित्यालंकारों को भी प्राचीन परिपाटी के अनुसार ही रखने की चेष्टा करते हैं। मिल्टन से लेकर अब तक अँगरेजी में इस प्रकार के अनेक 'क्लैसिक' रचनाकार हो गए हैं, जिनमें मेथ्यू आर्नल्ड अंतिम प्रसिद्ध क्लैसिक समझा जाता है और जिसके होमर-शैली के रूपकों की अच्छी ख्याति है। यह साहित्यिक वर्ग भाषा में प्रौढ़ता और अलंकरण तथा भावों में संयम और गंभीरता का आग्रह करता है। इस विचार से रत्नाकर जी सच्चे अर्थ में हिंदी... की 'क्लैसिक' कविता के अनुयायी और स्वयं अंतिम 'क्लैसिक' हो गए हैं तथा उनके अवसान से यह क्षेत्र सूना हो गया है। परंपरा के रूप में प्रचलित हो जाने पर इस क्लैसिक वर्ग के लेखकों के विरुद्ध नवीन साहित्यिक उन्मेष की आवश्यकता समझी जाती है और नवीनतावादी लेखक क्रांति करते हैं। भावों में अस्वाभाविकता और अनुभूति का अभाव भाषा में व्यर्थ का भार और रूढ़िगत चरित्र-चित्रण आदि का दोष लगाकर ये नवीन क्रांतिकारी पुराना तख्त उलट देने का आंदोलन करते हैं। परंतु इससे उस शैली का अंत नहीं होता; उलटे वह अपनी सीमा के अंदर नवीन आकर्षण उत्पन्न करने में समर्थ होती है और बहुत से नए समालोचक प्राचीनों के पक्ष में जोरदार प्रचार करने को तैयार हो जाते हैं। यूरोपीय साहित्य में इन दिनों नए सिरे से प्राचीन पक्ष के अनुकूल हवा बहती हुई देखी जाती है। हमारी हिंदी में अभी ब्रजभाषा की विरोधी शक्ति उत्थान पर है। परंतु आशा है, कुछ समय में हिंदी साहित्य-सागर का भी यह उद्वेलन स्थिरता प्राप्त करेगा और व्रजभाषा- नौका के यात्री सकुशल पार लग सकेंगे। के विवेचन से स्पष्ट होता है कि एक विशेष पथ पर परिश्रम पूर्वक चलते चलते रत्नाकर जी साहित्य में अपनी एक -अलग लीक बना गए हैं। इस विचार से वे हिंदी के एक ऐतिहासिक पुरुष ठहरते हैं। यह सम्मान युग के बहुत थोड़े व्यक्तियों को प्राप्त हो सकता है। हमें ऐसे ऐतिहासिक कवि के पुराने, अंतरंग तथा अभिन्न-हृदय मित्र होने का सौभाग्य प्राप्त है। अपनी गुप्त से ऊपर