पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५०

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अंचल छाँधे सहित पाय काषाय रँगाए। निज निज आसन ओर चलत सुठि सुख सरसाए ॥ सो सोभा सुभ चहत बनै कछु कहत बनै ना। मनहु अमंगल जीति चली मंगल की सैना ॥६१॥ कहूँ सकल सुखधाम धर्मसाले मनभाए । सब सुबिधा कौँ साधि ब्याँत सौँ बिसद बनाए । चहुँ दिसि दीसत दिब्य रचे लघु दीरघ कोठे। जिनके आगे अति बिसाल बर बने बरोठे ॥६२॥ एक ओर चौकन की राजति रुचिर पत्यारी । गोमय माटी मृदुल मेलि सुचि स्वच्छ सँवारी ।। आँगन माहि अनूप कूप सुंदर सुखदाई । जाकी जगति सुरूप मनहु जलभूप बनाई ॥६३॥ विद्यारत बर बिप्र ब्रह्मचारी ब्रत बसत तहाँ प्रमुदित प्रसन्न उन्नति उत्साहे ॥ बहु विधि कष्ट उठाय ठाय निज इष्टहिँ साधत । यथालाभ लहि असन बसन बानी आराधत ॥६४॥ बड़े भोर हठि उठत मोरि मुख सुख निद्रा सौं जद्यपि पाये पूर्व रात्रि हू दुख निद्रा सौँ । सकल सौच करि तुरत फुरत गंगा दिसि धावत । तह अन्हाय निर्बाहि नित्य निज-निज थल आवत ॥६५॥ बाहे।