पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अथवत भानुश्माल आनि सब जुरत तहाँ पुनि । संध्यावंदन करत यथाविधि सुमिरि देव-मुनि ॥ करि-करि कछु जलपान जहाँ तहँ दीपक धरि-धरि । भारे भारे सब जलपात्र पढ़न बैठत कहि हरि-हरि ॥७॥ कोउ न्याय वेदांत गुनत कोउ गणित लगावत । कोज काव्य साहित्य संहिता कोउ सुरझावत ॥ कोउ बाँधे धुनि धमकि पढ़े पाठहिँ परिपोषत । अमरसिंह को कोष सूत्र पानिनि के घोषत ।।७२।। कहुँ धनिकनि के धवल धाम अभिराम सुहाए । चौखंड पंचखंड सप्तखंड बर विसद बनाए ॥ गृह वाटिका समेत सुघर सुंदर सुखदाई । जिनकी रचना रुचिर निरखि मति रहति लुभाई ॥७३॥ बारहदरी विसाल अपर घर बिबिध सँवारे । तिदरे औ चौदरे पँचदरे परम उज्यारे॥ दुहरे दिव्य दलान रचे पाषान खंभ पर । आँगन परम प्रसस्त चारु प्राकार सबिस्तर ॥७४॥ चित्रित चित्र विचित्र चित्रसारी रंगवारी। उन्नत अनिल अवास अटित आकास अटारी॥ दुहरे तिहरे सिसिर सुखद हम्माम मनोहर । ग्रीषम हित सीरे उसीर गृह तहखाने बर ॥७५॥