पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५४

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वैभव भव प्रभुता करन कमला-कृपा-कटाच्छ लच्छ तह यच्छराज से । सुघर सखा सुचि दासि दास सुर-समाज से॥ नरेस प्रभु नारायन से । संपति सलिल अपार सार मोनी विधुगन से ।।८।। माधौलाल समान मान-धन-मधु सौ छाके। स्नचन्द से सौम्य प्रीति-भाजन कमला के॥ साहूकार पहार धरे धन के गिरिधर से । दाऊ से ब्यबहार-दच्छ सुख संपति करसे ॥८२।। सुघर सोम से भाल विभूषन बैभव भव के । रामचंद से सहज कारज गौरव के॥ नित नव उत्सव ठानि मानि आनँद मनभाए । बिलसत बिबिध बिलास हास मुखरासि सुहाए ॥८३।। षट् रस व्यंजन तुष्टि पुष्टिदायक समहारी । लेह पेय अरु चर्व चोष रसना रुचिकारी॥ बासित बर बरास मृगमद केसर गुलाब सौं। सजे रजतमय बासन में सत्र सुघर फाय सौं ।।८।। माखन मिश्री मंजु मधुर मेवा मनमाने । देस देस के फल बिसेस बहु व्यय करि आने । हंसमुख चतुर सुनार परोसत कहि मृदु बानी । परत दीठि जिहिँ भरत पाकसासन मुग्व पानी ॥८५॥