पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सजीले। इंद्रनील-मनि कलित कृष्न आभा गर्मीले। इकछाया गुरु स्निग्ध स्वच्छ मृदु पिंडित डीले ॥ सुघर साम कसमीर धाम के सुघटित सुंदर । अमल अमोल अमंद मंद-ग्रह-द्वंद-मंदकर ॥१०॥ गोमेदक गोमेद-रंग गुरु सुभग स्वच्छ स्निग्ध समतल निर्दल चिक्कन चमकीले ॥ सिंघल द्वीप प्रदीप मलय महिमा बिस्तारन । जिनको जागत लाहु राहुग्रह-आहु-निवारन ॥१०२॥ असिन सितामा सहित स्वच्छ सम गुरु गुनपूरे । अभ्र सुभ्र सुचि रुचिर रेख रंजित अति रूरे॥ घर बिराट कैकेय खानि के पानिप भीने । तिब्बत औ नैपाल भोट के खोट-बिहीने ॥१०३।। सुभग सार्ध द्वै मूत सहित अति अहित-विरोधी । दारिद-दरन दरेर धरनि धृत संपति सोधी । तरनि-किरन लहि विविध बरन वर धरन सुहाए । कुटिल केतु दुख दूर हेतु बैदूर बराए ॥१०४॥ तीखे तरल तुरंग बिबिध बहुरंग असीले । करत कुलंग कुरंग संग सब अंग सजीले ॥ बोटी बोटी फरफि उठत जो परमत चोटी । बदलि कनोटी कनमनात कर चहत चमोटी ॥१०५ ॥