पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१५९

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चपल उठावत धरत पाय पुहुमी जनु तापी । श्रीवा पुच्छ उठाइ चलत जिमि नचत कलापी । दाबत रान उरान करत ज्यौँ बान चलाए। उच्चैश्रवा समान सुघर सुभ सान चढ़ाए ॥१०६॥ बाजिनि के सिरताज तेज तरकी औ ताजी। जो बातहुँ सौँ बदत बेग-विक्रम मैं बाजी ॥ सुंदर सुघर सुसील स्वामितर रुचि-अनुगामी । जिनकी चाहत चाल चकत पच्छिनि के स्वामी ॥१०७॥ बिसद बदखसानी बर बलखी बिदित बुखारी। गरवी गुनगन माहिँ मंजु अरबी अनुहारी॥ काबुल औ खंधार देस के बहु-मग-गामी । पुष्ट सरीर सुधीर कोट कूदन मैं नामी ॥१०८ ॥ कठिन काठियावार चुटीले के परिपोखे । चंचल चपल चलाँक बाँकपन आँक अनोखे ॥ सुंदरता के बैंड ऐड सो पैंड चलया। जिनकी सुघर कनौटिनि बिच रुकि रहत रुपैया ॥ १०९ ॥ कच्छी कलित कमान पीठवारे सुभ लच्छी। पग मग धरत अलच्छ जात अधरहिँ जनु पच्छी ॥ उन्नत ग्रीव नितंब पुच्छ गुच्छित मनभाई । जिनके आगे सौं सवार नहिँ देत दिखाई ॥११०॥