पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६०

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बर बलोतरे औ कुलंग जंगल के जाए । भक्खर के अति भव्य भाड़वाड़ी मनभाए । बैलर बिसद बिसाल काय बलाद बलसाली। गुन गंभीर गौरंड देस के सुघर सुचाली ॥११॥ गिरिवर लाँघन कदमबाज टाँघन भोटानी । जिनपै चलत सवार थार छलकत नहि पानी ॥ बितते डेढ़ी करनि करन टेढ़ी के टट्ठ। जो खुटपुट इमि अटत नटत जैसे नट लट्टू ॥११२॥ अंग ढंग औ रंग भूरि भौंरी सुभ लच्छन । सालिहोत्र मत सोधि लिए सब बिबिध बिचच्छन । जिनके सुभग प्रसंग माहिँ नामहु दोषन के । लेन न उचित बिहाय भाय गुनगन पोषन के ॥११३॥ चारि सुदीरघ अंग चारि लघु ललित सुहाए। आयत चारि सुढार चारि मूच्छम मनभाए ॥ ऊरधचारी चारि चारि अधगति गुन भीने । अरुन बरन बर चारि चारि पुनि माँस बिहीने ॥११४॥ स्वेत अरुन बर बरन पीत मनहरन सुहाए । सुपिगि नील मेचक मन-भाए ॥ सबजे सुभग सुढार गहब गुलदार गुनीले । चीनी सुरखे सुठि सुरंग गर्दै गरबीले ॥११५॥ सुभ सारंग