पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६१

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ललित लौटे बलित कलित कुम्मैत करारे । कुल्ले कठिन सरीर समुद अति जीवटवारे ॥ अबलख लखि जोग सुभग सुंदर कल्यानी । पंचकल्यान पुनीत अष्टमंगल मुददानी ॥११६॥ गंगा जमुनी रजत साज सौँ सजित सुहाए । जिनकी चमकनि चहत रहत रबि-बाजि चकाए । सादे सुथरे सुघर मंजु मीना मनि धारे । कासी कटक सुरचित खचित हीराकटवारे ॥११७॥ पूजी कलगी करनफूल कल हैकल सेली। झाँझनि झबिया जाल सहित दुमची रुचि रेली ॥ मृदु मखतूल मुकेस कँदने फबत सुहाए । यालनि की सुचि रुचिर चारु चोटिनि लटकाए ॥११८॥ औ काहू पर कसी कलित काठी अँगरेजी। दुहरी दिढ़ लागी लगाम रोकन हित तेजी ॥ पुनि काहू पर सजे साज रूमी तुरकानी । जिनमैं कसे कुबूल जंघमूलनि सुखदानी ॥११९॥ खुले थान तैं थमत न थिरकत जमत जकंदत । कौतुक लागे लोग लखत लोभत अभिनंदत ॥ उच्चैश्रवा सिहात सान सजधज अबलोकत । चमक दमक अरु तमक ताकि रबिहूँ रथ रोकत ॥१२०॥