पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६३

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दर मुकलित कलबिक नैन चल श्रौनि सुविस्तर । अरुन बरन बर बिसद ओठ तालू मुख पुसकर ॥ सुंडाडंड बिसाल बृत्त सुभ द्वार मनोहर । मनु कलिंद तें गिरति कलिंदी धार धरनि पर ॥१२६॥' दिढ़ दीरघ दोउ दंत एक-सम सुघर सजीले । हेम कलित बर बलय-बलित चिक्कन चमकीले ॥ जुगल द्वैज द्विजराज विभूषित बिज्जु छटा सौं। मानहु निकसे सुचि सावन की स्याम घटा सौं ॥१२७॥ पीन प्रलंबित बदन चारु चित्रित मनभाए । स्निग्ध सँवारे सीस उच्च चल सुभग सुहाए । ग्रीवा गोल सुदौल लोल लाँबी लहकारी । गजपालनि सुखदानि भरनि रद सिर भर भारी ॥१२८॥ पोठिडंड कोदंड मांसमंडित दीरघ कल । सुदर ढार दोउ पच्छ ढरे मानहु कदली दल ॥ पुच्छ सुगुच्छित छोर कछुक पुहुमी सौँ ऊँची । मनु अदभुत रस रूप लिखन की लेखन कूँची ॥१२९।। रंभ खंभ के दंभ-दलन चहुँ पाय सुहाए । मनहु लदाऊ स्याम सिला मंडप के पाए ॥ अँगुरी विसद बिसाल सुभग सम संख्य सधन बर। कमठ पीठि से उच्च गोल नख स्वच्छ सुबिस्तर ॥१३०॥