पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६५

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थाहत। सुंडाडंड उदंड करत नभ-मंडल मनु गनपति की अकस चंद गहि धारन चाहत ॥ कै मेघनि सौं संचि चंचला की चिलकाई । निज-पट-भूषन भरन चहत झलमल अधिकाई ॥१३६॥ लसत् जथाविधि जथा जोग सब साज सजाए । हेम रजत मुकता प्रवाल मनिमय मन भाए । पंखा झूल सचंदसिरी गजगा झुकि झमकै । कंठा-हैकल-हार-किरन-दुमची-दुति दमकै ॥१३७॥ अंबर परसत मंजु मेघडंबर काहू को। मनु कलिंद पर कलित कनक मंडप आहू कौ ॥ हलकति झलकति भूल झालरनि जुत इमि भाव । स्यामघटा पर बिज्जुछटा माना छवि छावै ॥१३८॥ द्रविन-पाट पट-ठाट ठटे गज-रच्छक राजत । जिनके कर बर रजत-बंक-अंकुस छबि छाजत ।। निज करतब मैं दच्छ सकल गुन औगुन जानत । अंग-फुरन तैं निज मतंग मन रंग पिछानत ॥१३९॥ इक इक करि के संग लगे _ _ फुरतीले । कुंतलबाही निपुन साहसी सजग सजीले ॥ कोउ कहुँ साँटेमार सटकि साँटौ निज परखत । जाकी धुनि सौं धमकि मत्त सिंधुर-मद धरषत ॥१४०॥