पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१६६

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इहि बिधि बाहन बिबिध सविध सज्जित मनभाए । चहल-पहल नित रहत पौरि पर मंजु मचाए । पुरजन-परिजन-सखा सुहृद सचिवनि की टोली। प्रावति जाति लखाति परस्पर करत ठठोली ॥१४॥ मित्र-मंडली चलति कबहुँ आराम-रमन कौँ । सेवन सुचि जल बात तथा श्रम विसम समन कौँ ॥ बहु प्रकार व्यापार-जनित दुख-दंद दमन करें। ॥१४२॥