पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७०

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चलत न चारचौ भाँति कोटिनि बिचारयौ तऊ दाबि दाबि हारचौ पै न टारयौ टसकत है। परम गहीली बसुदेव-देवकी की मिली चाह-चिमटी हूँ साँ न बैंची खसकत है। कदत न क्यों हूँ हाय विथके उपाय सबै धीर-आक-छीर हूँ न धाएँ धसकत है। ऊधौ ब्रज-बास के बिलासान को ध्यान धस्यौ निसि-दिन काँटे लौँ करेज कसकत है ॥ ७॥ रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब साई अब आँस है उबरि गिरिवी करें। कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखें जिन्हें याद किएँ तिनकौँ अवाँ सौं घिरिबौ करें ॥ दिननि के फेर सौँ भयौ है हेर-फेर ऐसा जाकों हेरि फेरि हेरिबौई हिरवा करें। फिरत हुते जू जिन कुंजनि मैं आठौं जाम नैननि मैं अब साई कुंज फिरिबौ करें ॥८॥ गोकुल की गैल-गैल गैल-गैल ग्वालनि की गोरस के काज लाज-बस के बहाइबा ! कहै रतनाकर रिझाइवौ नबेलिनि काँ गाइबौ गवाइबौ औ नाचिवौ नचाइबौ ।।