पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७१

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कीवौ स्त्रमहार मनुहार के विविध विधि पोहिनी मृदुल मंजु मंज बाँसुरी बजाइबौ। ऊधौ सुख-संपति-समाज ब्रज-मंडल के भूलैं हूँ न भूले भूलें हमकाँ भुलाइवौ ॥९॥ मोर के पखौवनि को मुकुट छबीलो छोरि क्रीट मनि-मंडित धराइ करिहैं कहा । कहै रतनाकर त्यौँ माखन-सनेही बिनु षट-रस व्यंजन चबाइ करिहैं कहा ॥ गोपी बाल बालनि काँ झाँकि बिरहानल मैं हरि सुर-बूंद की की बलाइ करिहैं कहा। प्यारो नाम गोबिद गुपाल को विहाय हाय ठाकुर त्रिलोक के कहाइ करिहैं कहा ॥१०॥ कहत गुपाल माल मंजु मनि-पुंजनि की गंजनि की माल की मिसाल छबि छावै ना। कहै रतनाकर रतन-मै किरीट अच्छ मोर-पच्छ-अच्छ-लच्छ-अंसहू सु-भावै ना ॥ जसुमति मैया की मलैया अरु माखन को काम-धेनु-गोरस हू गढ़ गुन पावै ना। गोकुल की रज के कनूका औ तिनूका सम संपति त्रिलोक की बिलोकन मैं आवै ना ॥११॥