पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७२

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यौँ उमगत है राधा-मुख-मंजुल-सुधाकर के ध्यान ही सौं प्रेम-रतनाकर हिये त्यही बिरहातप प्रचंड सैाँ उमंडि अति अरध उसास को झकोर यौँ जगत है। केवट बिचार को विचारों पचि हारि जात नम-गत है करत गंभीर धीर-लंगर न मन को जहाज डगि डूबन लगत है॥१२॥ होत गुन-पाल ततकाल काज कळू चमक उठी सील-समी सुरुचि सु-बात चलैं पूरब की और ओप उमगी हुगनि मिदुराने ते। कहै रतनाकर अचानक उर घनस्याम के अधीर अकुलाने ते॥ आसाछन दुरदिन दीस्यो सुरपुर माहि ब्रज मैं सुदिन बारि-बूंद हरियाने तें। नीर को प्रवाह कान्ह-नैननि के तीर बयो धीर बयो ऊधी-उर-अचल रसाने ते ॥१३॥ सरके। प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान कहै रतनाकर धरा को धीर धूरि भयौ भूरि-भीति-भारनि फनिंद-फन करके ॥