पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७३

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सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव-सने संसय समाए धाए धाम बिधि हर के। आई फिरि ओप ठाम-ठाम ब्रज-गामनि के बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके ॥१४॥ हेत-खेत माहि खोदि खाई सुद्ध स्वारथ की प्रेम-तुन गोपि राख्यो तापै गमना नहीं। करिनी प्रतीति-काज करनी बनावट की राखी ताहि हेरि हिय हौसनि सना नहीं । घात मैं लगे हैं ये बिसासी ब्रजबासी सबै इनके अनोखे छल-छंदनि छना नहीं। बारनि कितेक तुम्हें बारन कितेक करें बारन-उबारन है वारन बना नहीं ॥१५॥ पाँचौ तत्त्व माहिँ एक सत्त्व ही की सत्ता सत्य याही तत्त्व-ज्ञान का महत्त्व स्रुति गायौं है । तुम तो विवेक रतनाकर कही क्यों पुनि भेद पंचभौतिक के रूप में रचायो है। गोपिनि मैं, आप मैं , वियोग औ सँजोग हूँ मैं एके भाव चाहिए सचोप ठहरायौ है। आपु ही सौँ आपुको मिलाप औ बिछोह कहा मोह यह मिथ्या सुख-दुख सब ठायौ है ॥१६॥ ,