पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७५

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आवा एक बार धारि गोकुल-गली की धार तब इहि नीति की प्रतीति धरि लैहैं हम । मन सौं, करेजे सौं, सवन-सिर-आँखिनि सौं ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम ॥१९॥ बात चलें जिनकी उड़ात धीर धृरि भयौं ऊधौ मंत्र किन चले हैं तिन्हें ज्ञानी है। कहै रतनाकर गुपाल के हिये मैं उठी हूक मूक भायनि की अकह कहानी है। गहबर कंठ है न कढ़न संदेस पायौं नैन-मग तौलौं आनि बैन अगवानी है। प्राकृत प्रभाव सौं पलट मनमानी पाइ पानी आज सकल सँवारयौं काज बानी है ॥२०॥ ऊधव के चलत गुपाल उर माहिँ चल- आतुरी मची सो परै कहि न कवीनि सौं । कहै रतनाकर हियौ हूँ चलिबै कौँ संग लाख अभिलाष ले उमहि बिकलीनि सौं॥ आनि हिचकी है गरे बीच सकस्यौई पर स्वेद है रस्यौई परै रोम-ऊंझरीनि सौं। आनन-दुवार ते उसाँस है बढ्यौई परै आँस है कढ्यौई परै नैन-खिरकीनि सौं ॥२१॥