पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७६

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रोक पाय [उद्धव की व्रज यात्रा आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौँ चढाइ कान्ह अकथ कथानि की व्यथा सौं अकुलात हैं। कहै रतनाकर बुझाइ कछु पुनि कछु ध्याइ उर धाइ उरझात हैं॥ उससि उसाँसनि सौ बहि बहि आँसनि साँ भूरे भरे हिय के हुलास न उरात हैं। सीरे तपे विविध संदेसनि की बातनि की घातनि की झाँक मैं लगेई चले जात हैं ॥२२॥ लै कै उपदेस-औ-सँदेस-पना ऊधा चले उछाह-उदगार कहै रतनाकर निहारि कान्ह कातर पै आतुर भए यौँ रह्यौं मन न सँभार मैं ॥ ज्ञान-गठरी की गाँठि छरकि न जान्यौ कब हर हरै पूँजी सब सरकि कछार मैं । डार मैं तमालनि की कछु बिरमानी अरु कछु अरुझानी है करीरनि के झार मैं ॥२३॥ हर हरै ज्ञान के गुमान घटि जान लगे जोग के विधान ध्यान हूँ तँ टरिबै लगे। नैननि मैं नीर रोम सकल सरीर छयौ प्रेम-अदभुत-सुख सूझि परिवै लगे॥ सुजस-कमाइबैं