पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७८

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भेजे मनभावन के ऊधव के पावन की सुधि ब्रज-गावनि मैं पावन जबै लगी। कहै रतनाकर गुवालिनि की झारि-झौरि दौरि-दौरि नंद-पौरि आवन तब लगी ॥ उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै पेखि पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगी। हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकाँ लिख्यौ है कहा कहन सबै लगी ॥२७॥ देखि देखि आतुरी बिकल ब्रज-बारिनि की ऊधव की चातुरी सकल बहि जाति हैं। कहै रतनाकर कुसल कहि पूछि रहे अपर सनेस की न बात कहि' जाति हैं। मौन रसना है जोग जदपि जनायौं सबै तदपि निरास-बासना न गहि जाति हैं। साहस कै कछुक उमाहि पूछिबै कौँ ठाहि चाहि उत गोपिका कराहि रहि जाति हैं ॥२८॥ दीन दसा देखि ब्रज-बालनि की ऊधव को गरि गौ गुमान ज्ञान गौरव गुठाने से । कहै रतनाकर न नीर भरि ल्याए भए सकुचि सिहाने से ॥ आए मुख बैन नैन