पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१७९

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सूखे से समे से सकबके से सके से थके भूले से भ्रमे से भमरे से भकुवाने से । हौले से हले से हूल-हूले से हिये मैं हाय हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से ॥२९॥ मोह-तम-रासि नासिबे की स-हुलास चले ब्रह्म को प्रकास पारि मति रति-माती पर । कहै रतनाकर पै सुधि उधिरानी सबै धूरि परी धीर जोग-जुगति-सँघाती पर ॥ चलत बिषम ताती बात ब्रज-बारिनि को विपति महान परी ज्ञान-बरी बाती पर। लच्छ दुरे सकल विलोकत अलच्छ रहे एक हाथ पाती एक हाथ दिए छाती पर ॥३०॥ [उद्धव के व्रजवासियों से बचन] चाहत जो स्वक्स सँजोग स्याम-सुंदर कौ जोग के प्रयोग में हियौ तौ विलस्यौ रहै। कहै रतनाकर सु-अंतर-मुखी है ध्यान मंजु हिय-कंज-जगी जोति मैं धस्यौ रहै ॥ ऐसे करौ लीन आतमा कौँ परमातमा मैं जामें जड़-चेतन-बिलास बिकस्यौ रहै। मोह-बस जोहत बिछोह जिय जाका छोहि सो तो सन-अंतर निरंतर बस्यौ रहै ॥३॥