पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८०

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कहै रतनाकर पंच तत्त्व मैं जो सच्चिदानंद की सत्ता सो तौ हम तुम उनमै समान ही समोई है। बिभूति पंच-भूत हू की एक ही सी सकल प्रभूतनि मैं पोई है ॥ माया के प्रपंच ही सौँ भासत प्रभेद सबै काँच-फलकनि ज्यौँ अनेक एक साई है। देखा भ्रम-पटल उघारि ज्ञान-आँखिनि सौं कान्ह सब ही मैं कान्ह ही मैं सब कोई है ॥३२॥ सोई कान्ह सोई तुम साई सबही हैं लक्षा घट-घट-अंतर अनंत स्यामघन कहै रतनाकर न भेद-भावना सौँ भरौ बारिधि औ बँद के बिचारि बिछुरन काँ॥ अविचल चाहत मिलाप तौ बिलाप त्यागि जोग-जुगती करि जुगावौ ज्ञान-धन काँ। जीव आतमा कौं परमातमा मैं लीन करो छीन करौ तन कौँ न दीन करौ मन कौँ ॥३३॥ सुनि-सुनि ऊधव को अकह कहानी कान कोऊ थहरानी, कोऊ थानहिँ थिरानी है। कहै रतनाकर रिसानी, बररानी कोऊ कोऊ बिलखानी, बिकलानी, बिथकानी है ॥