पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८१

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कोऊ सेद-सानी, कोऊ भरि दृग-पानी रहीं कोऊ घूमि-घूमि परों भूमि मुरझानी हैं। कोक स्याम-स्याम के बहकि बिललानी को कोमल करेजी थामि सहमि सुखानी हैं ॥३४॥ [ उद्धव के प्रति गोपियों का वचन ] रस के प्रयोगनि के सुखद सु जोगनि के जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई हैं। तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन देत ना सुदर्सन हूँ यौँ सुधि सिराई हैं। करत उपाय ना सुभाय लखि नारिनि को भाय क्यों अनारिनि का भरत कन्हाई हैं। ह्याँ तो विषमज्वर-वियोग की चढ़ाई यह पाती कौन रोग की पठावत दवाई हैं ॥३५॥ ऊधौ कहाँ सूधौ सौ सनेस पहिले तो यह प्यारे परदेस ते कवै धौं पग पारिहैं । कहै रतनाकर तिहारी परि बातनि में मीडि हम कब लॉ करेजो मन मारिहे। लाइ-लाइ पाती छाती कब लौं सिरहै हाय धरि-धरि ध्यान धीर कब लगि धारिहै । बैननि उचारिहैं उराहना कबै धौँ सबै स्याम को सलोना रूप नैननि निहारिहैं ॥३६॥