पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८३

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चंद अरबिंद लैंौं सराहयौ ब्रजचंद जाहि ता मुख काँ काकचंचवत करिबी कहौ । छेदि-छेदि छाती छलनी के बैन-बाननि साँ तामै पुनि ताइ धीर-नीर धरिबी कहौ ॥३९॥ काँच-मन-मुकुर कहौ। सारन कौं चिंता-मनि मंजुल पँवारि धरि-धारनि मैं सुधारि रखिवौ कहै रतनाकर बियोग-आगि ऊधौ हाय हमकौं बयारि भखिबौ कहाँ ।। रूप-रस-हीन जाहि निपट निरूपि चुके ताको रूप ध्याइबौ औ रस चखिवा कहौ । एते बड़े बिस्व माहि हेरैं हूँ न पैयै जाहि, ताहि त्रिकुटी मैं नैन [दि लखिबा कहौ ॥४०॥ आए हैा सिखावन कौँ जोग मथुरा त तापै ऊधौ ये बियोग के बचन बतरावा ना । कहै रतनाकर दया करि दरस दीन्यौ दुख दरिबै कौं, तोपै अधिक बढ़ावा ना ।। टूक-टूक है मन-मुकुर हमारौ हाय चूकि हूँ कठोर-बैन-पाहन चलावा ना। एक मनमोहन तौ बसिकै उजारचौं माहिँ हिय मैं अनेक मनमोहन बसावौ ना ॥४१॥