पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८५

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कर-बिनु कैसैं गाय दहिहै हमारी वह पद-बिनु कैसै नाचि थिरकि रिझाइहै । कहै रतनाकर बदन-विनु कैसैं चाखि माखन वजाइ बेनु गोधन गवाइहै ॥ देखि सुनि कैसैं दृग स्ववनि बिनाही हाय भोरे ब्रजबासिनि की विपति बराइहै। रावरौ अनूप कोऊ अलख अरूप ब्रह्म ऊधौ कहौ कौन धाँ हमारै काम आइहै ॥४७॥ वे तो बस बसन रँगावै मन रंगत ये भसम रमा वे ये श्रापुही भसम हैं। सांस साँस माहिँ बहु बासर बितावत वे इनकै प्रतेक साँस जात ज्यौँ जनम हैं। है कै जग-भुक्ति सौँ बिरक्त मुक्ति चाहत वे जानत ये भुक्ति मुक्ति दोऊ बिष-सम हैं। करिकै बिचार ऊधी सूधी मन माहि लखा जोगी सौं बियोग-भोग-भोगी कहा कम हैं ॥४८॥ जोग को रमाव औ समाधि को जगावै इहाँ दुख-सुख-साधनि सौं निपट निबेरी हैं। कहै रतनाकर न जानें क्यों इतै धौं आइ साँसनि की सासना की बासना बखेरी हैं।