पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१८८

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एकै बार लैहैं मरि मीच की कृपा सौं हम रोकि-रोकि साँस बिनु मीच मरिवौ कहा । छिन जिन झेली कान्ह-बिरह-बलाय तिन्हैं नरक-निकाय की धरक धरिबौ कहा ॥१४॥ जोगिनि की भोगिनि की बिकल बियोगिनि की जग मैं न जागती जमाते रहि जाइँगी। कहै रतनाकर न सुख के रहे जो दिन तौ ये दुख-द्वंद की न राते रहि जागी । प्रेम-नेम छाँड़ि ज्ञान-छेय जो बतावत सेो भोति ही नहीं तौं कहा छाते रहि जागी। पाते रहि जाइँगी न कान्ह की कृपा ते इती ऊधौ कहिले काँ बस बातें रहि जागी ॥५५॥ कठिन करेजो जो न करक्यौ वियोग होत तापर तिहारौ जंत्र मंत्र खचिहै नहीं। कहै रतनाकर बरी हैं बिरहानल मैं ब्रह्म की हमारे जिय जोति जैचिहै नहीं। ऊधी ज्ञान-भान की प्रभानि ब्रजचंद बिना चहकि चकोर चित चोपि नचिहै नहीं। स्याम-रंग-रॉचे साँचे हिय हम ग्वारिनि के जोग की भौंहीँ भेष-रेख रँचिहै नहीं ॥५६॥