पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९

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हिंदी की कविता इन्होंने कुछ काल बाद आरंभ की, परंतु उसका तार बीच बीच में टूट जाता था। इन्होंने रियासत आवागढ़ में नौकरी कर ली थी जहाँ ये खजाने के निरीक्षक के पद पर काम करते थे। पर जलवायु अनुकूल न होने के कारण दो ही वर्ष बाद नौकरी छोड़ दी और काशी चले आए। इन दिनों वर्षों तक कविता का सिलसिला चला। इनके रसिक स्वभाव ने कविता के लिए ब्रजभाषा को ही अपनाया था। उस समय खड़ी बोली का आंदोलन इतना प्रबल नहीं था। व्रजभाषा का ही बोलबाला था। ब्रजभाषा के कई अच्छे कवि काशी में रहते थे जिनसे रत्नाकर जी ने शिक्षाप्राप्ति का लाभ उठाया। भारतेंदु के कविसम्मेलनों में ये बाल्यकाल से ही जाने लगे थे। जिसके कारण यह संस्कार दृढ़ हो गया और वे कविसम्मेलनों का आयोजन करने और उनमें सम्मिलित होने में बड़ा उत्साह दिखाते थे। परंतु वे चुने हुए कवितारसिकों के छोटे छोटे सम्मेलनों के पक्षपाती थे। भीड़भड़क्के से बहुत घबराते थे। सन् १६०२ में ये स्वर्गीय अयोध्यानरेश के प्राइवेट सेक्रेटरी नियुक्त हुए। तब से ये स्वर्गीय महाराज के जीवनपर्यंत . उसी पद पर रहे। चार पाँच वर्ष इस प्रकार बीते । सन् १८०६ में जब महाराज का देहांत हो गया तब इनकी कार्य- कुशलता और योग्यता से संतुष्ट होकर अयोध्या की महारानी साहिबा ने इन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बना लिया। अब उन्हें साहित्यसेवा करने का वह अवसर हो न मिलने लगा जो उन्हें अब तक मिलता आया था। राज्य के कार्य का भार सँभालने में ही इनका सब समय बीतने लगा। फलतः कवि-दरबार करने के बदले अब ये कचहरियों का दरबार देखने लगे। सन् १९०६ से १६२१ तक इनकी कविता परिस्थितिवश छूटी रही। इससे अवश्य हिंदी संसार की हानि हुई। सन् १९२१-२२ में जब रत्नाकर जी को साहित्य को फिर से एक नजर देखने और उस ओर आकर्षित होने का अवसर मिला तब खड़ी बोली की पर्याप्त उन्नति हो चुकी थी। परंतु रत्नाकर जी को उसमें वह मिठास, वह रचना-चातुरी और वह कला न मिलती थी. जो व्रजभाषा में पाई जाती थी। उनकी दृष्टि में कविता, तालतुकहीन, अंगभंग. और क्षीणछवि हो गई थी। अतः उन्होंने उसी पुरानी श्रुतिमधुर ध्वनि का ध्यान करके दुबारा कलम उठाई। इनके हाथ से मँज कर व्रजभाषा निखरने लगी। उसके ऊपर की अशुद्ध काई छूट चली। कवित्तों और अन्य छंदों के संघटन-क्रम पर विशेष ध्यान देकर रत्नाकर जी ने अपनी कविता- कारीगरी को पहले से द्विगुणित शक्ति से बढ़ाया। ये व्रजभाषा की नैसर्गिक माधुरी का आस्वाद लेकर उसी की मनोरम परिस्थितियों में निवास करने लगे। इन्होंने अपना जीवनक्रम भी उसी के अनुकूल रखा। मध्यकालीन ठाटबाट, वेशभूषा और रुचि बना ली । दिखावट-बनावट और प्रसिद्धि की इन्हें कुछ भी चाह नहीं थी। इस युग की गति उन्हें नहीं व्यापी थी। उन्हें देखकर शायद ही कोई कह सकता कि उन्होंने बी० ए० तक अँगरेजी पढ़ी है। इनका स्वभाव विनोदप्रिय सरल, उदार और सज्जनोचित था। मित्र- मंडली में ये अपने इस स्वभाव के कारण बहुत प्रिय थे। काशी में तो ये रहते ही थे। प्रयाग, लखनऊ आदि में भी इनके दौरे अक्सर हुआ करते थे। ऐसे अवसरों पर दल के दल साहित्य-सेवी, जिनमें अँगरेजी पढ़े-लिखे नवयुवकों से