पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९०

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रसना हमारी चारु चातकी बनी है ऊधौ पी-पो की बिहाइ और रट रटिहैं नहीं। लौटि-पौटि बात को बवंडर बनावत क्यों हिय तैं हमारे घन-स्याम हटिहैं नहीं ॥५९॥ नैननि के प्राण नित नाचत गुपाल रहैं ख्याल रहैं सोई जो अनन्य-रसवारे हैं। कहै रतनाकर सो भावना भरीयै रहै जाके चाव भाव र. उर मैं अखारे हैं॥ ब्रह्म हूँ भए पै नारि ऐसियै बनी जी रहैं तौ तौ सहैं सीस सबै बैन जो तिहारे हैं। यह अभिमान तो ग है ना गए हूँ पान हम उनकी हैं वह प्रीतम हमारे हैं ॥६॥ सुनी गुनी समझी तिहारी चतुराई जिती कान्ह की पढ़ाई कबिताई कुबरी की हैं। कहै रतनाकर त्रिकाल हू त्रिलोक हूँ मैं प्रा. आन नै ना त्रिदेव की कही की हैं। कहहिँ प्रतीति प्रीति नीति हूँ त्रिवाचा बाँधि ऊधौ साँच मन को हिये की अरु जी की हैं। वै तौ हैं हमारे ही हमारे ही हमारे ही औ हम उनही की उनही की उनही की हैं ॥ ६॥