पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९३

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चाव सौं चले हौ जोग-चरचा चलाइवै काँ चपल चितौनि तैं चुचात चित-चाह है। कहै रतनाकर पै पार ना वसैहै कडू हेरत हिरैहै भरचौ जो उर उछाह है ।। अंडे लौ टिटेहरी के जैहै जू विवेक वहि फेरि लहिवे की ताके तनक न राह है। यह वह सिंधु नाहि सोखि जो अगस्त लिया ऊधौ यह गोपिनि के प्रेम का प्रबाह है ॥६७॥ टाय-टाय बृथा धरि राखा ज्ञान गुन गौरब गुमान गोइ गोपिनि काँ आवत न भावत भङ्ग है। कहै रतनाकर करत सुनत न कोऊ इहाँ यह यह मुहचंग है। और हूँ उपाय केतै सहज सुढंग ऊधौ साँस रोकिब कौं कहा जोग ही कुढंग है । कुटिल कटारी है अटारी है उतंग अति जमुना-तरंग हैं तिहारौ सतसंग है ॥६८॥ प्रथम भुराइ चाय-नाय पे चढ़ाइ नीकै न्यारी करी कान्ह कुल-कूल हितकारी तैं। की तरल तरंग पारि पलटि पराने पुनि प्रन-पतवारी ते ॥ प्रेम-रतनाकर