पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९४

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और न प्रकार अब पार लहिवै की कडू अटकि रही हैं एक आस गुनवारी तैं । सेोऊ तुम आइ बात विषम चलाइ हाय काटन चहत जोग-कठिन कुठारी ते ॥६९॥ प्रेम-पाल पलटि उलटि पतवारी-पति केवट परान्या कूव-तूबरी अधार लै। कहै रतनाकर पठायौ तुम्हें तापै पुनि लादन काँ जोग को अपार अति भार लै॥ निरगुन ब्रह्म कहा रावरौ वनैहै कहा ऐहै कछु काम हूँ न लंगर लगार लै । विषम चलावा ज्ञान-तपन-तपी ना पारी कान्ह तरनी हमारी मँझधार लै॥७०॥ बात प्रथम भुराइ प्रेम-पाठनि पढ़ाइ उन तन मन कीन्हें बिरहागि के तपेला हैं। कह रतनाकर त्यौँ आप अब तापै आइ साँसनि की साँसति के भारत झमेला हैं । ऐसे ऐसे सुभ उपदेस के दिबयनि की ऊधौ ब्रजदेस मैं अपेल रेल-रेला हैं। वे तो भए जोगी जाइ पाइ कूबरी को जोग आप कहैं उनके गुरू हैं किधौँ चेला हैं ॥७॥