पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९६

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और जो कियौ सो कियौं ऊधौ पैन कोऊ बियौ ऐसी घात धूनी करै जनम-सँघाती पर । कूवरी की पीठि तें उतारि भार भारी तुम्हें भेज्यौ ताहि थापन हमारी छीन छाती पर ॥७४॥ सुघर सलोने स्यामसुंदर सुजान कान्ह करुना-निधान के बसीठ बनि आए हौ । प्रेम-प्रनधारी गिरिधारी को सनेसो नाहि होत है |देसी झूठ बोलत बनाए हौ ॥ ज्ञान-गुन-गौरव-गुमान-भरे फुले फिरौ बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ। रसिक-सिरोमनि को नाम मेरी जान ऊधौ कूर-कूबरी-पगए हौ ॥७५॥ बदनाम करौ ढरारै है. कान्ह कूबरी के हिय-हुलसे-सरोजनि तें अमल अनंद-मकरंद जो कहै रतनाकर, यौँ गोपी उर संचि ताहि तामैं पुनि आपना प्रपंच रंच पारै है॥ आइ निरगुन-गुन गाइ ब्रज मैं जो अब ताको उदगार ब्रह्मज्ञान-रस गारै है। मिलि सो तिहारौ मधु मधुप हमारे नेह देह मैं अछेह बिष बिषम बगार है ॥७६॥