पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/१९९

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ह्याँ तो ब्रजजीवन सौं जीवन हमारौं हाय जानें कौन जीव ले उहाँ के जन जनमैं कहै रतनाकर बतावत कछू कछू को कछू ल्यावत न नैकुँ हूँ विबेक निज मन मैं ॥ अच्छिनि उघारि ऊधौ करहु प्रतच्छ लच्छ इत पसु-पच्छिनि हूँ लाग है लगन मैं । काहू की न जीहा करै ब्रह्म की समीहा सुनौ पीहा-पीहा रटत पपीहा मधुबन मैं ॥२॥ बाढ्यौ ब्रज पै जो ऋन मधुपुर-बासिनि को तासौँ ना उपाय काहूँ भाय उमहन कौँ । कहैं रतनाकर विचारत हुती ही हम कोऊ सुभ जुक्ति तासौँ मुक्त है रहन कौँ ॥ कीन्यौ उपकार दारि दोउनि अपार ऊधौ सोई भूरि भार सौँ उबारता लहन काँ । लै गयौ अक्रूर-क्रूर तब सुख-मूर कान्ह आए तुम आज प्रान-ब्याज उगहन कौं॥८॥ पुरती न जो पै मोर-चंद्रिका किरीट-काज जुरती कहा न कांच किरचैं कुभाय की। कहै रतनाकर न भावते हमारे नैन तौ न कहा पावते कहूँधौं ठाँय पाय की॥