पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०२

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जारचौ अंग अब तो विधाता है इहाँ को भया तातें ताहि जारन की ठसक ठनी रहै। बगर-बगर बृषभान के नगर नित ग्रीषम बनी भीषम-प्रभाव रहै ॥८९॥ रहति सदाई हरियाई हिय-घायनि मैं ऊरध उसास सो झकार पुरवा की है। पीव-पीव गोपी पीर-पूरित पुकारति हैं। सोई रतनाकर पुकार पपिहा की है। लागी रहै नैननि सौ नीर की झरी औ उठै चित मैं चमक सेा चमक चपला की है। बिनु घनस्याम धाम-धाम ब्रज-मंडल मैं ऊधौ नित बसति बहार बरसा की है ॥९॥ जात घनस्याम के ललात दृग-कंज-पाँति घेरी दिख-साध-भौर-भीर की अनी रहै। कहै रतनाकर बिरह-बिधु बाम भयौ चंद्रहास ताने घात घालत घनी रहै । सीत-घाम-बरषा-बिचार बिनु आने ब्रज पंचबान-बाननि की उमड़ ठनी रहे। काम बिधना सौं लहि फरद दवामी सदा दुरद दिवैया ऋतु सरद बनी रहै ॥११॥