पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०४

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कबहूँ परे न नैन-नीर हूँ के फेर माहि पैरिबौ सनेह-सिंधु माहिँ कहा ठानौ तुम । जानत न ब्रह्म हूँ प्रमानत अलच्छ ताहि तौंपै भला प्रेम का प्रतच्छ कहा जाना तुम ॥१४॥ हाल कहा बूझत बिहाल परौं बाल सबै बसि दिन द्वैक देखि गनि सिधाइयो । रोग यह कठिन न ऊधौ कहिबे के जोग सूधौ सौ सँदेस याहि तू न ठहराइयो । औसर मिलै औ सर-ताज कछु पूछहिँ तौ कहिया कछू न दसा देखी सो दिखाइयो । आह कै' कराहि नैन नीर अवगाहि कछू कहिले काँ चाहि हिचकी लै रहि जाइयौ ॥१५॥ नंद जसुदा औं गाय गोप गोपिका की कडू वात बृषभान-भौन हूँ की जनि कीजियौ । कहै रतनाकर कहति सब हा हा खाइ ह्याँ के परपंचनि सौं रंच न पसीजियौ ॥ आँस भरि ऐहै औं उदास मुख हैहै हाय ब्रज-दुख-त्रास की न तातें साँस लीजियौ । बताइ औं जताइ गाम ऊधौ बस स्याम सौं हमारी राम-राम कहि दीजियौ ॥१६॥ नाम को