पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०८

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माँगी बिदा माँगत ज्याँ मीच उर भीचि कोऊ कीन्यौ मौन गौन निज हिय के हुलास लौँ । विथकित साँस लौँ चलत रुकि जात फेरि आँस लौँ गिरत पुनि उठत उसास लौँ॥१०४॥ चल-चित-पारद की दंभ-कंचुली कै दुरि ब्रज-मग-धृरि प्रेम-मृरि सुभ-सीली लै। कहैं रतनाकर सु जोगनि विधान भावि अमित प्रमान ज्ञान-गंधक गुनीली लै॥ जारि घट-अंतर ही अाह-धूम धारि सबै गोपी बिरहागिनि निरंतर जगीली लै॥ आए लौटि ऊधव विभूति भव्य भायनि की कायनि की रुचिर रसायन रसीली लै ॥१०५॥ पतन आए लौटि लज्जित नवाए नैन ऊधौ अब सब सुख-साधन को सूधौ सौ जतन लै। कहै रतनाकर गवाए गुन गौरव औ गरब-गढ़ी को परिपूरन छाए नैन नीर पीर-कसक कमाए उर दीनता अधीनता के भार सौं नतन ले। प्रेम-रस रुचिर बिराग-तूमड़ी ज्ञान-गूदड़ी मैं अनुराग सौ रतन लै ॥१०६॥