पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२०९

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आए दौरि पारि लौँ अवाई सुनि ऊधव की और ही बिलोकि दसा दृग भरि लेत हैं। कहै रतनाकर बिलोकि बिलखात उन्हें येऊ कर काँपत करेजें धरि लेत हैं। आवति कछूक पूछिबे औ कहिबे की मन परत न साहस पै दोऊ दरि लेत हैं। आनन उदास साँस भरि उकसाँहैं करि सौंहैं करि नैननि निचौं है करि लेत हैं ॥१०७॥ प्रेम-भद-छाके पग परत कहाँ के कहाँ थाके अंग नैननि सिथिलता सुहाई है। कहै रतनाकर यौँ आवत चकात ऊधौ माना सुधियात कोऊ भावना भुलाई है। धारत धरा पै ना उदार अति आदर साँ सारत बहालिनि जो आँस-अधिकाई है। एक कर राजै नवनीत जसुदा को दियौ एक कर बंसी बर राधिका-पठाई है ॥१०८॥ ऊधव को ब्रज-रज-रंजित सरीर सुभ धाइ बलबीर है अधीर लपटाएं लेत । कहै रतनाकर सु प्रेम-मद-माते हेरि थरकति बाँह थामि थहरि थिराए लेत ॥