पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१२

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लीजै हेरि आपुही न हेरि हम पायौ फेरि याही फेर माहि भए माठी दधि-आँठी तें। ल्याए धूरि पूरि अंग अंगनि तहाँ की जहाँ ज्ञान गयौ सहित गुमान गिरि गाँठी तें ॥११४॥ ज्यौहाँ कछु कहन सँदेस लग्यौ त्यही लख्यौ प्रेम-पूर उमॅगि गरे लौँ चढ़यौ आवै है। कहैरतनाकर'न' पाँव टिकि पार्दै ऐसौ दृग-द्वारनि स-बेग कयौ आवै है ॥ मधुपुरि राखन को बेगि कछु ब्यौंत गढ़ौ धाइ चढ़ौ बट के न जौपै गढ्यो आवै हैं। आयौ भज्यौं भूपति भगीरथ लौँ हौ तौ नाथ साथ लग्यौ सोई पुन्य-पाथ बढ्यौं आवै है ॥११५॥ जैहै ब्यथा विषम विलाइ तुम्हें देखत ही तातें कही मेरी कहूँ अ॒ठि ठहराचौ ना। कहै रतनाकर न याही भय भाष भूरि याही कहैं जावौ बस बिलँब लगावा ना ॥ एतौ और करत निबेदन सबेदन हैं ताको कछु बिलग उदार उर ल्यावा ना। तब हम जानैं तुम धीरज-धुरीन जब एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि जावा ना ॥११६॥