पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१६

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प्रथम सर्ग' राजै। पावनि-सरजू-तीर अवध-पुरि बसति सुहावनि । महि-महिमा-आधार त्रिपुर सोभा-सरसावनि ॥ मेदिनि-मंडल-मंजु-मुद्रिका-मनि सी बन-राजी चहुँ फेर घेर-नग को छबि छाजै ॥१॥ वसुधा-सुभग-सिँगार-हार-लर सरजू सोहै। मनि-नायक सु-ललाम धाम साकेत बिमोहै । भुक्ति-मुक्ति की खानि वेद-इतिहास-बखानी । जाको बास महान पुन्य साँ पावत पानी ॥२॥ सप्त पुरिनि मैं प्रथम रेख जाकी जग लेखत । सुर-समाज है दंग रंग जाको जुरि देखत ।। ताकी जथा-स्वरूप कौन करि सकत बड़ाई । जो त्रिलोक-अभिराम रामहूँ के मन भाई ॥३॥ धवल धाम अभिराम लसत तहँ बिसद बनाए । हाट बाट के ठाट सुघर सुंदर मन भाए ॥ रुचिर रम्य आराम जिन्हें लखि नंदन लाजत । बापी कूप तड़ाग भरे जल बिमल बिराजत ॥४॥