पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१७

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दिनकर-बंस-अनूप-भूप-गन की रजधानी। न्याय चाय के भाय सदा सासित सुख-सानी ॥ चारहुँ बरन पुनीत बसत जहँ आनंद माने । धनी गुनी सुभ-कर्म धर्म-रत सुमति सयाने ॥५॥ भयः भूप तिहिँ नगर सगर इक परम प्रतापी । दिग-छोरनि लौँ उमगि जासु कल कीरति ब्यापी ॥ रिपु-बल-खल-दल-दलन प्रजा-परिजन-दुख-भंजन । गुनि-जन-जीवन-मूल सुकृति-सज्जन-मन-रंजन ॥ ६॥ गो-ब्राह्मन-प्रतिपाल ईस-गुरु-भक्त अदूषित । बल-बिक्रम-बुधि-रूप-धाम सुभ-गुन-गन-भूषित ॥ नीति-पाल जिहि सचिव बाल की खाल खिंचैया । सेनप स्वामि-प्रसेद-पात-थल रक्त-सिँचैया ॥७॥ भामिनि-भूषन भई जुगल ताकी पटरानी । ज्ञान-सुसंगिनि जथा भक्ति स्रद्धा सुख-सानी ॥ भूप-सुचि-रुचि-अनुगामिनि । जिनकी प्रभा निहारि हारि सकुचति सुर-स्वामिनि ॥ ८॥ इक केसिनी विदर्भ-राज बर की कुल-कन्या । दूजी सुमति सुपर्न-भव्य-भगिनी भुवि-धन्या ।। दोउ पुनीत पति-प्रीति-पात्र दोउ पति-अनुरागिनि । दोउ कुल-कमला-गिरा-रूप दाउ अति बड़-भागिनि ॥९॥ जोबन-रूप-अनूप