पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२१९

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दीरघ घृत-घट घालि पालि ते धाइ बढ़ाए । समय-संग सब अंग रूप जोबन अधिकाए ॥ महा बीर बरिखंड भए महि-मंडल-मंडन । निज भुजदंड उदंड चंड-अरि-मुंड-विहंडन ॥१५॥ उत असमंजहु भयौ भूरि-बल -बिक्रम-स म-साली। पै अति उद्धत कुल-बिरुद्ध निर्बुद्धि कुचाली ॥ कलित कल्पतरु माहि कटुक माहुर-फल आयौ । विधि कलंक को पंक बिमल-विधु-अंक लगायौ ॥१६॥ ताकी क्रीडा विषम माहिँ पीड़ा जग पावत । पुर-बालक बहु पकरि सदा सो सरित डुबावत ॥ दीन प्रजा दुख पाइ आइ नृप-द्वार गुहारति । लहत भूप संताप चहत तिनकी अति आरति ॥१७॥ सुनि पुकारि इक वार नीर नैननि नृप ढारयो । तुरत ताहि तजि नेह गेह सौं दरि निकारयौ ॥ जैसैं जब बहु करि उपाय औषधि, हिय हारत । सब अंगनि दुख-देत दंत बुधिवंत उखारत ॥१८॥ ताको सुत सुभ अंसुमान कल-कीरति-धारी । प्रिय-बादी प्रिय-रूप भूप-परिजन-हितकारी ।। भयौ जुबा है धीर बीर बरिबंड प्रतापी । परम बिनीत पुनीत नीति-मरजादा-थापी ॥१९॥