पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२०

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दिय राज को कान ताहि जुवराज बनाया। अस्वमेध के करन माँहि नृप निज मन लायौ।। बोलि साधनी-पुंज मंजु मंडप रचवायौ । जाकी सोभा निरखि बिस्वकर्मा सकुचायौ ॥ २० ॥ ऋत्विज-गन अति निपुन बेद-बिद न्यौति पठाए । गुरु वसिष्ठ लै ऋषि-समाज सादर तहँ आए । छोड्यौ छिति-पति स्यामकरन सुवरन बर बाजी । ताकै सँग डटि चली बिकट सुभटनि की राजी॥ २१ ॥ परम साहसी साठ सहस नृप-सुत असि-बाही । दृढ़-दीरघ-बल-बलित-काय अतिसय उतसाही ।। गर्जत तर्जत चले संग सव अंग उमैठत । जिनको लखि अातंक बंक-अरि-उर भय पैठत ॥ २२ ॥ फिरचौ अस्व चहुँ ओर छोर छिति की सब छानी । पै मनसायौ नैकु नाहि कोउ प्रतिभट मानी ॥ रह्यौ बाँधिबा दुरि घरि कोउ ताहि न देखत । प्रत्युत पूजि सभीति ईति बीती निज लेखत ॥ २३ ॥ इमि बाजी प्रति नगर सगर-कीरति कल थापी । ताकी प्रभुता-छाप टाप-रेखनि छिति छापी ॥ करि करनी की अवधि अवध सब पलटि पधारे। देत दुंदुभी करत नाद अति आनंदवारे ॥२४॥