पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२१

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बानी ॥ तब भूपति-ढिग आनि ब्यवस्था विषम वखानी । विस्मय-ब्रीड़ा-त्रास-हास-लटपट मृदु परचौ रंग मैं भंग दंग है सकल बिचारत । मूक भाव साँ एक एक को वदन निहारत ॥३०॥ उपाध्याय-गन धाइ धवल अानन लटकाए। त्रिकुटी उँचै ससंक बंक भ्रकुटी भभराए । भरि गंभीर स्वर भाव भूप सौं किया निवेदन । गयौ पर्व-दिन अस्व भयौ भारी हित-छेदन ॥३१॥ सुनि अति अनहित बैन भए नृप-नैन रिसाँहैं । फरकि उठे भुजदंड तने तेवर तरजीहैं। कयौ सारथी टेरि त्रिपथ-गामी रथ नाधौ। महाचाप सायक अमोघ भाथनि भरि बाँधौ ॥३२॥ सेनप होहि सनद्ध सकल-जग-जीतनहारे। हम चलि देखें आप कौन काँ प्रान न प्यारे । काको सिर घर त्यागि धरा पर परन चहत है । को जम-गाल कराल भाल निज भरन चहत है ॥३३॥ चाह्यौ उठन भुवाल भाषि इमि बलकति बानी। पै राख्यौ कर पकरि रोकि गुरुबर बिज्ञानी ॥ कह्यौ अहो नृप कौन ढार यह ढरन चहत है।। बृथा जज्ञ-फल-लोप कोप करि करन चहत है। ॥३४॥