पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२२

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जज्ञ-सरन ज्याँ त्यागि चरन बाहिर कढ़ि जैहै । है त्यौँ मख-भंग रंग रिपु को बढ़ि जेहै । पुनि याहू तो करि बिबेक मन नैंकु बिचारी। कापै साजत सेन कौन जग सत्रु तिहारौ ॥३५॥ महि-मंडल मैं भूप कौन ऐसौ भट मानी । जो तव अच्छ-समच्छ सकत कर पकरि कृपानी ॥ पै बिन जानें कहौ कौन पै अस्त्र चलैहौ । उथलपथल थल किऐं बृथा कछु लाभ न पैहौ ॥३६॥ करि उपयुक्त उपाय प्रथम हय-खोज लगावौ । जथाजोग उद्योग साधि ताकाँ पुनि पावा ॥ अपकीरति अपमान अमंगल न तु जग छैहै । विमल भानु-कुल आनि राहु-छाया परि जैहै ॥३७॥ इमि सुनत बचन गुरुदेव के बिधि-बिबेक-आदर-भरे । अति सोक सोच संकोच के खीच-बीच नरपति परे ॥३८॥