पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बाजी गयौ पताल यहै ग्रह-चाल बतावति । हरनहार को धाम ठाम ऊँचौ ठहरावति ॥ है मिलिबौ सम-साध्य दैव पर अंत मिलेहै । हैहै सुभ परिनाम आदि अति असुभ लखैहै ॥५॥ सुनि गनकनि की गूढ़ गिरा सब बिस्मय पागे । असुभ-त्रास-सुभ-अास-भरे निरखन मुख लागे ॥ मख राखन को रंग पाइ नरपति हरियाने । माना सूखत सालि-खेत पर धन घहराने ॥६॥ और भाव सब भूलि भूप मन मैं मुद मान्यौ। परमारथ को लाभ अस्व-पावन मैं जान्यौ ॥ साठ सहस सुत धीर बीर बरिवंड बुलाए । कर्ष-हर्ष-आमर्ष-जनक सुनाए ॥७॥ जाके पूत सपूत होहिँ तुम से बल-साली । ताको हय हरि लेहि हाय' कोउ क्रूर कुचाली ॥ देव दनुज थहरात देखि दल तात तिहारौ । कहा बापुरी चपल चोर आधे-जियवारौ॥८॥ हैहै अति हित-हानि अस्व जो हाथ न ऐहै। हंस-बंस की साक धाक माटी मिलि जैहै॥ है सनद्ध कटि-बद्ध सकल मन-सुद्ध सिधारौ। पैठि पेलि पाताल तुरत हय हेरि निकारौ॥९॥ बर बचन